Naturopathy ‘प्राकृतिक चिकित्सा’- स्वस्थ जीवन जीने की कला है पंच तत्वों की चिकित्सा (Art of living Healthy Life)

जैसे जैसे मनुष्य प्रकृति से दूर होता गया वैसे वैसे वह रोगों और दुखों से घिरता चला गया। Naturopathy “प्राकृतिक चिकित्सा” में सभी बीमारियों का इलाज प्राकृतिक तरीके से ही किया जाता है और यह चिकित्सा, आहार और गतिविधि का एक संयोजन होता है।

भारतीय दर्शन एवं आयुर्वेद के अनुसार मानव शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश नामक पंच महाभूतो से मिलकर बना होता है, इन्ही तत्वों के भली प्रकार से उपयोग द्वारा मनुष्य को स्वस्थ भी रखा जा सकता है। प्रकृति मे रहने वाले अधिकतर जीव-जन्तु स्वंय का उपचार किसी ना किसी प्राकृतिक विधि द्वारा ही करते है।

Naturopathy “प्राकृतिक चिकित्सा” के तरीके एवं महत्व

प्राकृतिक रहन-सहन एवं खान-पान का प्रयोग करते हुए स्वस्थ रहना या बीमार होने पर प्रकृति द्वारा दिये गये तत्वों का प्रयोग करके निरोग हो जाना ही प्राकृतिक चिकित्सा है।

प्रकृति ने हमें आकाश (उपवास), वायु (श्वसन क्रिया, व्यायाम), अग्नी (सूर्य, रंग, भाप), जल (पानी पीने से लेकर पानी से संबंधित अन्य क्रियाएं) और पृथ्वी (मिट्टी का उपयोग) यह पांच चिकित्सक दिए हैं जिनके जरिए हम स्वस्थ रह सकते हैं। स्वस्थ जीवन जीने की कला है पंच तत्वों की चिकित्सा- जानिए Naturopathy ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ विस्तार से।

Naturopathy “प्राकृतिक चिकित्सा” मे वायु एंव आतप का महत्व

वायु का स्वास्थ्य में विशेष महत्व है। बिना श्वांस लिए हम जीवित नहीं रह सकते। इसी प्रकार सूर्य के प्रकाश का भी उपयोग चिकित्सा मे किया जाता है। प्रकाश के सात अलग-अलग रंगो से भी स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।

वायु

श्वांस छोडते समय हम कार्बनडाईअक्साइड के साथ-साथ विजातीय तत्वों को भी बाहर निकालते है। प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार स्वास्थ्य के लिए वायु का प्रयोग निम्न रूप से किया जा सकता है-  

  • प्रतिदिन शुद्ध वातावरण मे बैठकर लम्बे-लम्बे गहरे श्वांस लेकर।
  • मुंह बन्द करके नाक से श्वांस लेते हुए शुद्ध वातावरण मे तेज गति से टहलकर। 
  • शुद्ध वातावरण मे खुले बदन टहलने से वायु का शरीर पर स्पर्श होता है और शरीर की जीवनीय श्क्ति बढ़ती है।
  • योग प्रशिक्षक से नाड़ी शोधन प्राणायाम कापालभाति आदि के अभ्यास द्वारा।

आतप व रंग

बैंगनी रंग का प्रकाश रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है, नीला प्रकाश शरीर में शीतलता लाता है, आसमानी प्रकाश क्रोध को शांत करता है, हरा प्रकाश रक्त शोधक एवं नेत्रों की दृष्टि बढ़ाने वाला है, पीला प्रकाश बुद्धि को बढ़ाता है और शरीर को उत्तेजित करता है, नारंगी रंग का प्रकाश भूख में वृद्धि करता है तथा मानसिक शक्तिवर्धक है, लाल रंग का प्रकाश शरीर की संवेदनाएं बढ़ाता है एवं नाडी दर में वृद्धि करता है।

इसके अतिरिक्त प्रातः काल खुले बदन सूर्य के प्रकाश में घुमने से जीवनीय शक्ति एवं विटामिन डी की प्राप्ति होती है। विभिन्न प्रकार के रंगो के उपयोग के लिए उन्हीं रंगो की कांच की बोतलो में पानी अथवा तेल भरकर उसे तीन से चार घन्टे सूर्य प्रकाश में रखें फिर उसका उपयोग स्वास्थ्य के लिए बाह्य एवं आभ्यातंर रूप से किया जा सकता है। स्नान से पूर्व सूर्य की किरणों में पन्द्रह से बीस मिनट लेटना भी आतप स्नान/सन बाथ कहलाता है।

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Naturopathy “प्राकृतिक चिकित्सा” में चुम्बक, मालिश, एक्यूप्रेशर और एक्युपंचर का महत्व

चुंबकीय चिकित्सा एक नैदानिक ​​प्रणाली है जो बीमारियों के इलाज के लिए मैग्नेट का उपयोग करती है।

शरीर के अवयवों को दबाना, उन पर हाथ फेरना तथा मर्दन करना हमेशा होता रहता है| शरीर के मर्दन को मालिश या मसाज करना भी कहते हैं। माँ के गर्भ से जन्म लेते ही मालिश व मर्दन का आरंभ सहज रूप से होता है।

एक्यूप्रेशर (Acupressure)इलाज का एक प्राचीन तरीका है जिसमें शरीर के विभिन्न हिस्सों के महत्वपूर्ण बिंदुओं पर दबाव डालकर बीमारी को ठीक करने की कोशिश की जाती है.

एक्यूपंचर (Acupuncture) सूईयों के द्वारा किया जाने वाला एक ट्रीटमेंट है। एक्यूपंचर का आविष्कार प्रचीन काल में ही हुआ है।

चुंबकीय चिकित्सा

इस थेरेपी में, मैग्नेट को चिपकने की मदद से शरीर से जोड़ा जाता है या कभी-कभी गहने की तरह पहना जाता है। नुस्खे के आधार पर, मैग्नेट को विभिन्न लंबाई के लिए संलग्न किया जा सकता है; इसे कुछ मिनटों, दिनों या हफ्तों के लिए संलग्न किया जा सकता है। चिकित्सकों के अनुसार, शरीर, पृथ्वी और अन्य विद्युत चुम्बकीय क्षेत्रों के बीच बातचीत से मनुष्यों में शारीरिक और भावनात्मक परिवर्तन होते हैं।

Naturopathy "प्राकृतिक चिकित्सा"- Magnetic Therapy

चुंबक चिकित्सा के समर्थकों का मानना ​​है कि शरीर के विघटन का इलाज चुंबक के उपयोग से किया जा सकता है और यह गठिया, सिरदर्द, और तनाव से संबंधित दर्द सहित सिरदर्द में बहुत प्रभावी है। यह अस्थमा, हृदय, नाक, खांसी और सर्दी, जोड़ों के दर्द, रीढ़ की समस्याओं, पेट दर्द, पीठ के निचले हिस्से में दर्द, सीने में दर्द, एसिडिटी, स्पॉन्डिलाइटिस, माइग्रेन, रक्तचाप और कमजोरी जैसी बीमारियों में उत्कृष्ट परिणाम देता है।

मालिश

शरीर में ब्लड सर्क्युलेशन यानी रक्त संचरण को दुरुस्त बनाए रखने में मालिश बहुत मदद करती है। साथ ही यह त्वचा को नम बनाने में मॉइश्चराइजर का काम करती है। इसके अलावा आयुर्वेद या प्राकृतिक चिकित्सा में भी मालिश का महत्व बहुत है। इसे कई रोगों में राहत देने वाला तरीका माना जाता है।

हालांकि मालिश के लिए कौन सा तेल उपयोग में लाना है, इसको लेकर सबकी अपनी मान्यताएं होती हैं, लेकिन विशेषज्ञ कुछ तेलों को मुख्यतौर पर मालिश के लिहाज से बहुत फायदेमंद मानते हैं। मुख्यतः सरसो, बादाम, जैतून, नारियल, तिल, घी, और अरंडी का तेल का उपयोग मालिश में ज़्यादा किया जाता है।

Naturopathy "प्राकृतिक चिकित्सा"
Baby Massage

एक्यूप्रेशर

दरअसल, हमारे शरीर के मुख्य अंगों के दबाव केंद्र यानी प्रेशर पॉइंट्स (Pressure Points) पैरों के तलवे में और हथेलियों में होते हैं.

यह एक वैकल्पिक चिकित्सा तकनीक है जो हमारे शरीर में प्रवाहित होने वाली जीवन ऊर्जा पर आधारित है। इस अभ्यास में, आप अपने एक्यूपॉइंट पर शारीरिक दबाव डालते हैं जो रुकावटों को दूर करने में मदद करता है और हमारे शरीर में रक्त परिसंचरण (blood flow) को बढ़ाता है।

Naturopathy "प्राकृतिक चिकित्सा"

एक्युपंचर

हमारे वेदों में भी सूइयों से इलाज के बारे में जानकारी मिलती है। यह तकरीबन 2000 साल से चला आ रहा है। यह एक कामयाब उपचार है। बाद में वैज्ञानिकों ने इसके बारे में रिसर्च की और यह पाया कि इसके द्वारा किया जाने वाला इलाज सबसे फायदेमंद है। एक्यूपंचर सबसे पहले चाइना में इस्तेमाल किया गया। असल में यह उन्हीं के द्वारा ईजाद किया गया है। चाइना में इसके बहुत सारे अस्पताल है जहाँ इसका ट्रीटमेंट होता है।

एक्यूपंचर (Acupuncture)  सूइयों के द्वारा किया जाने वाला एक सफल ट्रीटमेंट है। इसमें डाक्टर मरीज़ के रोग का पता लगाकर उस ख़ास जगह पर सुइयां लगाते हैं। वह सुइयां शरीर के एनर्जी पावर के बहाव को कंट्रोल करने में फायदा देती हैं। एक्यूपंचर की जगह को इलेक्ट्रिक तार के जरिए स्टीमुलस दिया जाता है। ये इलेक्ट्रॉनिक एनर्जी पावर को पूरे शरीर में दौड़ाता है। इसके द्वारा शरीर की इनर्जी को कम या ज्यादा भी कर सकते हैं।  यह हर तरह की बीमारियों में फायदेमंद है।

प्राकृतिक चिकित्सा में उपवास, विश्रमण, जल एवं मृतिका का महत्व

उपवास, प्राकृतिक चिकित्सा की महत्वपूर्ण एवं लाभकारी विधि है। सामान्यतः उपवास का अर्थ भोजन ग्रहण न करना होता है, परन्तु प्राकृतिक चिकित्सा में यह स्वास्थ्य रक्षा एंव रोगियों की चिकित्सा की अत्यन्त प्रभावकारी विधि है।

विश्राम से मनुष्य की कार्य करने की क्षमता बढ़ती है तथा मनुष्य का मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य ठीक रहता है।

जल की तरलता, अवशोषण, घुलनशीलता, विसर्जन एवं तापनियामक गुणों के कारण यह शरीर से विजातीय तत्वों के साथ-साथ उपापचय से बने अन्य विषैले तत्वों को भी शरीर से बाहर निकालने में सहायता करता है।

प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार यह शरीर मिट्टी से बना है, एवं मिट्टी में पैदा हुए अन्न, आहार आदि से ही शरीर का निर्माण एवं वर्धन होता है। मिट्टी के रंगो के आधार पर एवं स्थान के आधार पर उनके अलग-अलग उपयोग प्राकृतिक चिकित्सा मे बताए गये है।

उपवास

आधुनिक समय में विकृत खान-पान से भोजन का पाचन उचित रूप में नही होने से आम का निर्माण होता है, जिससे उदर रोग एवं अनेक बीमारियां होती है। पाचन शक्ति के कम होने से उपापचय की क्र्रियाओं में भी विकृति आ जाती है। प्राकृतिक चिकित्सा में इन विकृतियों का उपचार उपवास द्वारा किया जाता है।

उपवास द्वारा आमाशय खाली रहने के कारण आकाश तत्व की समावस्था बनी रहती है। उपवास दो प्रकार का है- पूर्ण निराहार एवं फलाहार। इसके अतिरिक्त निर्जल एंव सजल उपवास भी प्रचलित है।

विश्रमण

विश्राम हमारी दिनचर्या का महत्वपूर्ण भाग है। लगातार शारीरिक श्रम करने, मानसिक श्रम करने अथवा खेल-कूद आदि के बाद शरीर थक जाता है और शरीर में ऊर्जा कम होने लगती है।

शरीर एवं मन को पुनः तरो-ताजा करने के लिए सुखमय वातावरण में शवासन की अवस्था में थोडे समय के लिए आराम पूर्वक लेटकर विश्रमण का अभ्यास करना चाहिए। मन में सकारात्मक चिंतन के साथ श्वांस एवं प्रश्वांस पर ध्यान केंद्रित करने से शीघ्र स्वास्थ्य लाभ होता है।

जल चिकित्सा

प्राकृतिक चिकित्सा में जल का बहुत अधिक महत्व है। डा जे.एच. किलोग ने जल चिकित्सा पर बहुत अधिक कार्य किया। इनकी “रेशनल हाइड्रोथैरेपी” जल चिकित्सा की सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तक है।

जल का उपयोग आभ्यांतर एवं बाह्य दो विधियों से किया जाता है। बाह्य विधियों में कटि स्नान, मेहन स्नान, पाद स्नान, तरेरा नीप, पिण्डली स्नान, पृष्ठवंश स्नान, हस्त स्नान एवं जलमग्न स्नान, आदि विभिन्न स्नानों एवं ठण्डे व गर्म जल की पट्टीयों तथा लपेटों के माध्यम से चिकित्सा की जाती है।

ये भी तापमान के आधार पर शीतल एवं उष्ण दो प्रकार के होते है। आभ्यांतर प्रयोग में उषापान, कुंजल, जलनेति, जलबस्ति आदि विधियों को लिया जाता है।

मृतिका उपयोग

मिट्टी मे त्वचा के रोगों को एवं घावों को ठीक करने की अद्भुत क्षमता होती है। विभिन्न प्रकार के लेप एवं पट्टीयों के रूप में मृतिका का उपयोग किया जाता है। कील-मुहांसो के लिए मुलतानी मिट्टी का लेप एवं बालों की समस्या में तालाब की मिट्टी का लेप तो भारत में घर-घर में प्रचलित है।

प्राकृतिक चिकित्सा में मृतिका स्नान भी किया जाता है। एडाल्फ जस्ट के अनुसार पाचन क्रिया को ठीक करने के लिए जमीन पर सोने से बढकर दूसरा कोई उपाय नही है। उन्होंने भूमि सेवन के दो उपाय बताये- नंगे पांव जमीन पर चलना एवं टहलना तथा जमीन पर लेटना व सोना। धरती के सीधे सम्पर्क से पृथ्वी की जीवनीय शक्ति प्राप्त होती है।

नेचुरोपैथी (प्राकृतिक चिकित्सा) के मूलभूत सिद्धांत

वैसे तो प्राकृतिक चिकित्सा कई विशिष्ट सिद्धांतों पर कार्य करती है परन्तु उनमे से प्रमुख कुछ सिद्धांत हैं-

  • सभी रोग, उनके कारण एवं उनकी चिकित्सा एक है। आकस्मिक चोट को छोड़कर सभी रोगों का मूलकारण एक ही है और इनका इलाज भी एक है। शरीर में विजातीय पदार्थो के संग्रह से रोग उत्पन्न होते है और शरीर से उनका निष्कासन ही चिकित्सा है।
  • रोग का मुख्य कारण जीवाणु नही है। जीवाणु शरीर में जीवनी शक्ति के ह्रास आदि के कारण विजातीय पदार्थो के जमाव के पशचात् तब आक्रमण कर पाते है जब शरीर में उनके रहने और पनपने लायक अनुकूल वातावरण तैयार हो जाता है। अतः मूल कारण विजातीय पदार्थ है, जीवाणु नहीं। जीवाणु द्वितीय कारण है।
  • तीव्र रोग चूंकि शरीर के स्व-उपचारात्मक प्रयास है अतः ये हमारे शत्रु नही मित्र है। जीर्ण रोग तीव्र रोगों के गलत उपचार और दमन कें फलस्वरूप पैदा होते है।
  • प्रकृति स्वयं सबसे बडी चिकित्सक है। शरीर में स्वयं को रोगों से बचाने व अस्वस्थ हो जाने पर पुनः स्वास्थ्य प्राप्त करने की क्षमता विद्यमान है।
  • प्राकृतिक चिकित्सा में चिकित्सा रोग की नहीं बल्कि रोगी की होती है।
  • जीर्ण रोग से ग्रस्त रोगियों का भी प्राकृतिक चिकित्सा में सफलतापूर्वक तथा अपेक्षाकृत कम अवधि में इलाज होता है।
  • प्राकृतिक चिकित्सा से दबे रोग भी उभर कर ठीक हो जाते है।
  • प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा शारिरिक, मानसिक, सामाजिक (नैतिक) एवं आध्यात्मिक चारों पक्षों की चिकित्सा एक साथ की जाती है।
  • विशिष्ट अवस्थाओं का इलाज करने के स्थान पर प्राकृतिक चिकित्सा पूरे शरीर की चिकित्सा एक साथ करती है।
  • प्राकृतिक चिकित्सा में औषधियों का प्रयोग नहीं होता। प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार ‘आहार ही औषधि’ है।

प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास

प्राचीन इतिहास

प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास उतना ही पुराना है जितना स्वयं प्रकृति। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि यह दूसरी चिकित्सा पद्धतियों कि जननी है। इसका वर्णन पौराणिक ग्रन्थों एवं वेदों में मिलता है, अर्थात वैदिक काल के बाद पौराणिक काल में भी यह पद्धति प्रचलित थी।

भारतीय योगदान

प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति भारत की ही देन है परन्तु कुछ कारणों तथा अन्य विकासों के प्रभावानुसार यह पद्धति भारत में लुप्त हो गई। इसके बाद इसके पुनः निर्माण का श्रेय विदेशों (पाश्चातय देशों) को ही है।

भारत में आधुनिक युग में डी. वेंकट चेलापति शर्मा द्वारा वर्ष 1894 में डॉ॰ लूई कूने के प्रसिद्ध पुस्तक ’द न्यू साइंस ऑफ हीलिंग’ का तेलुगु भाषा में अनुवाद करने के साथ प्राकृतिक चिकित्सा का प्रादुर्भाव हुआ। इसके पश्चात 1904 में बिजनौर निवासी श्री कृष्ण स्वरूप ने इसका अनुवाद हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में किया।

डॉ॰ कृष्णम राजू ने विजयवाडा से थोड़ी दूरी पर ही एक विशाल चिकित्सालय की स्थापना की। इसके साथ साथ देश में डॉ॰ जानकीशरण वर्मा, डॉ॰ शरण प्रसाद, डॉ॰ महावीर प्रसाद पोद्दार, डॉ॰ गंगा प्रसाद गौड, डॉ॰ विट्ठल दास मोदी, डॉ॰ सदानंद सिंह, डॉ॰ हीरालाल, महात्मा जगदीशवरानन्द, डॉ॰ कुलरन्जन मुखर्जी, डॉ॰ वी. वेंकट राव, डॉ॰ एस. जे. सिंह, इत्यादि के प्रयासों से कई सरकारी संस्थाएं तथा दिल्ली में केन्द्रिय योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा अनुसंधान परिशद इत्यादि की स्थापना हेतु मुख्य योगदान दिया जिसके फलस्वरूप आज मान्यता प्राप्त चिकित्सालय पद्धति के रूप में स्वीकार की गई।

पाश्चात्य देशों का योगदान

इस चिकित्सा को दोबारा प्रतिष्ठित करने की मांग उठाने वाले मुख्य चिकित्सकों में बड़े नाम पाश्चातय देशों के एलोपैथिक चिकित्सकों का है। ये वो प्रभावशाली व्यक्ति थे जो औषधि विज्ञान का प्रयोग करते- करते थक चुके थे और स्वयं रोगी होने के बाद निरोग होने में असहाय होते जा रहे थे।

उन्होने स्वयं पर प्राकृतिक चिकित्सा के प्रयोग करते हुए स्वयं को स्वस्थ किया और अपने शेष जीवन में इसी चिकित्सा पद्धति द्वारा अनेकों असाध्य रोगियों को उपचार करते हुए इस चिकित्सा पद्धति को दुबारा स्थापित करने की शुरूआत की।

ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व ही हिपोक्रेटीज ने प्राकृतिक चिकित्सा का पुनः पुनरूथान किया। इसी कारण इन्हें ’चिकित्सा का जनक’ कहते है।

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